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ये कैसी शिक्षा : ज्यों-ज्यों डिग्री बढ़ती जाती, सृजनशीलता घटती जाती!

“एक शोध रिपोर्ट : 5 वर्ष के बच्चों में रचनात्मकता 98 प्रतिशत थी, वहीं 10 वर्ष की आयु में यह घटकर 30 प्रतिशत रह गई और जब उन्हीं बच्चों के 15 वर्ष के होने पर यह परीक्षण किया गया तो यह मात्र 12 प्रतिशत थी। जब यही परीक्षण 280,000 वयस्कों पर किया गया तो सृजनात्मकता केवल 2 प्रतिशत थी।”


 

सृजनात्मकता के लिए शिक्षा : डॉ. प्रमोद कुमार चमोली

अभी हाल ही में केंद्रीय साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के राजस्थानी भाषा के कन्वीनर और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व वाईस चेयरमैन डॉ. अर्जुन देव चारण के बीकानेर प्रवास के दौरान शिक्षा पर हुई अनौपचारिक बातचीत के दौरान उनकी एक राजस्थानी कविता का आस्वाद का अवसर प्राप्त हुआ। जो इस प्रकार है :

बेटा
ले आ पोथी
ओ बस्तो
आ इस्कूल
म्है थारी हूंस रा
सगळा मार्ग बंद करां।

इस चर्चा के पश्चात सम्पूर्ण शिक्षा व्यवस्था में दृष्टि डालने पर लगा कि एक कवि, विचारक और उद्भट विद्वान शिक्षा को किस दृष्टि से देखता है। यानी हमारी आज की शिक्षा प्रणाली बच्चे की “हूंस” यानी सृजनक्षमता को समाप्त करने का काम करती है। यह कविता यह भी बताती है कि यह हूंस प्रत्येक मनुष्य में मौजूद होती है।

मिथकः सृजनात्मकता विशिष्ट होती हैः

इस कविता से गुजरते हुए यह तो स्पष्ट हुआ कि सामान्य तौर पर सृजनात्मकता का विशिष्ट अर्थों में किया जाने वाला प्रयोग गलत है। यदि कोई बेहतर लिख सकता है। अच्छा चित्र बना सकता है। अच्छा अभिनय कर सकता है अथवा कला के किसी रूप में किसी की विशिष्टता को सृजनात्मकता के लिए प्रयोग किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो सृजनशीलता किसी विशिष्ट व्यक्तित्व का गुण होता है। दरअस्ल यह सृजनात्मत्कता के बारे में सबसे बड़ा मिथक है।

प्रत्येक मनुष्य मूल रूप से सृजनशील है:

कविता में कवि केवल अपने पुत्र के लिए नहीं बल्कि अपने पुत्र का बिम्ब बनाकर सम्पूर्ण मानव जगत को संबोधित करता है। इस आधार पर यह कहना गलत नहीं होगा कि सृजनात्मकता प्रत्येक मनुष्य की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। शायद इसी क्षमता के चलते हम पृथ्वी ग्रह पर मौजूद अन्य समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ हैं। हमने इस ग्रह की चीजों को अपने अनुसार बनाने के लिए उनमें बदलाव किया। हमने अपनी भाषा का विकास किया। हमने सवाल करना शुरू किया कि हम कौन हैं, हमें कैसे व्यवहार करना चाहिए और हम पहली बार कैसे अस्तित्व में आए। इन्हीं सवालों की खोज करते हुए आज हम इस ग्रह पर मौजूद सभी प्राणियों से श्रेष्ठ हैं।

यानी हम कह सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में सृजनशीलता होती है। अमेरिकी न्यूरोलॉजिस्ट एलिस फ्लेहर्टी ने अपनी किताब “द मिडनाइट डिजीज में सृजनात्मकता के बारे में बताया है कि एक रचनात्मक विचार को सरल शब्दों में इस रूप में परिभाषित किया जा सकता है कि वह एक ऐसा विचार है जो किसी विशेष सामाजिक परिवेश में नवीन और उपयोगी (या प्रभावशाली) दोनों है। फ्लेहर्टी का यह भी कहना है कि यह बात व्यवसाय, आईटी, विज्ञान और गणित पर उतनी ही लागू होती है, जितनी कि कथा लेखन, कला या रंगमंच इत्यादि में।

सृजनात्मकता क्या है:

सृजनात्मकता अंग्रेजी भाषा के Creativity का हिन्दी रूपान्तरण है। जिसका अर्थ है है- मौलिकता। अतः हम साधारण रूप से उस कार्य को सृजनात्मक कार्य कह सकते जिसके करने का परिणाम नवीन हो अतः उस प्रक्रिया को सृजनात्मकता कह सकते हैं जो हमको नवीन ढंग से सोचने और विचार करने को प्रेरित करे। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में स्थित ऐसी क्षमता है जिसके माध्यम से वह किसी समस्या का नवीनतम विधियों एवं पूर्व प्रचलित स्थितियों और अपने पास संचित ज्ञान का सहारा लेते हुए नवीन ढंग से समाधान करने हेतु अग्रसर होता है।

जब सभी में सृजनात्मकता होती है तो दिखाई क्यों नहीं देतीः

उक्त के बारे में नेट पर खोज करते हुए अमेरिका में विकसित एक विशिष्ट परीक्षण के परिणाम बड़े चौकाने वाले हैं। अमेरिकी स्पेस एंजेसी हेतु नासा ने अपने राकेट वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की सूजनक्षमता नापने हेतु डॉ. जॉर्ज लैंड और बेथ जर्मन से संपर्क कर एक अत्यधिक विशिष्ट परीक्षण विकसित करवाया जिससे वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की रचनात्मक क्षमता को प्रभावी ढंग से मापा जा सके। यह परीक्षण बहुत सफल रहा, लेकिन वैज्ञानिकों के पास कुछ सवाल रह गए, रचनात्मकता कहाँ से आती है? क्या कुछ लोग इसके साथ पैदा होते हैं या इसे सीखा जाता है? या यह हमारे अनुभव से आता है?

ये खास शोध आँखें खोलने वाला है : 

इन्हीं प्रश्नों की खोज के लिए लैंड ने 3 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों की सृजनात्मकता का परीक्षण करने के लिए इसी परीक्षण कर प्रयोग किया। उन्होंने उन्हीं बच्चों का 10 वर्ष की आयु में और फिर 15 वर्ष की आयु में परीक्षण किया। परिणाम चौंकाने वाले थे। लैंड ने पाया कि जहां 5 वर्ष के बच्चों में रचनात्मकता 98 प्रतिशत थी, वहीं 10 वर्ष की आयु में यह घटकर 30 प्रतिशत रह गई और जब उन्हीं बच्चों के 15 वर्ष के होने पर यह परीक्षण किया गया तो यह मात्र 12 प्रतिशत थी। जब यही परीक्षण 280,000 वयस्कों पर किया गया तो सृजनात्मकता केवल 2 प्रतिशत थी।

इस परीक्षण के क्या मायने बनते हैं?

अमेरिका में हुए इस परीक्षण के मायने यह बनते हैं कि पांच वर्ष के बाद विद्यालयी शिक्षा में प्रवेश लेने वाले विद्यार्थी की जन्मजात सृजनशीलता कम होती जाती है। ऐसा नहीं है कि यह केवल अमेरिका के विद्यालयों में ही होता है। हमारे विद्यालयों की तरह बच्चों में उपलब्ध जन्मजात सृजनशीलता को अवरूद्ध करते हैं। दरअस्ल यह सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का दोष है जिसमें सभी को समान शिक्षा देने का प्रावधान है। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जब से सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था आम आदमी की नहीं अपितु शासक वर्ग की जरूर बातों को पूरा करने का प्रक्रम मात्र हैं।

उल्लेखनीय है कि स्टीव जॉब्स (एप्पल) या बिल गेट्स (माइक्रोसॉफ्ट) जैसी प्रौद्योगिकी कंपनियों की स्थापना करने वाले कुछ बेहद अमीर अग्रदूत कॉलेज ड्रॉपआउट थे। यानी आज हम शिक्षा तक सभी की पहुँच बनाने में काफी सफल हुए हैं। लेकिन सृजनात्मकता के लिए शिक्षा के सन्दर्भ में अभी मंजिल दूर है।

शिक्षा और सृजनात्मकता को पृथक नहीं किया जा सकताः

यहाँ प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे के शिक्षा के बारे में कथन का उल्लेख करना उचित होगा। “शिक्षा का मुख्य लक्ष्य ऐसे लोगों का निर्माण करना होना चाहिए जो नई चीजें करने में सक्षम हों, न कि केवल वही दोहराते रहें जो पिछली पीढ़ियों ने किया है ऐसे लोग जो रचनात्मक, आविष्कारशील और खोजकर्ता हों।”

दरअस्ल शिक्षा और सृजनात्मकता के साथ शब्द आपस में जुड़े हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि शिक्षा के बिना सृजनात्मकता और सृजनात्मकता के बिन शिक्षा की कोई उपयोगिता नहीं सकती। कुल मिलाकर शिक्षा और सृजनात्मकता भी एक दूसरे से जुड़े और अन्योन्याश्रित हैं। कह सकते हैं कि बगैर सृजनात्मकता के शिक्षा अर्थहीन होगी और सृजनात्मकता के विकास के लिए शिक्षा और प्रशिक्षण का अवसर भी जरूरी होता है। इसलिए शिक्षा की सार्थकता के लिए उसका रचनात्मक और सृजनात्मकता होना ही चाहिए। यहाँ हम यह कह सकते हैं कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ही व्यक्ति का सृजनात्मक उत्कर्ष करना है।

क्या हो रहा आज की शिक्षा में:

आज की शिक्षा में सृजनात्मकता की तलाश करना एक सर्वथा मूर्खतापूर्ण कृत्य हो सकता है। जब हम आज की शिक्षा व्यवस्था में सृजनात्मकता की जगह तलाशते हैं तो विफलता ही हाथ लगती है। आज शिक्षा के मायने पाठ्यपुस्तक पढ़ना, प्रश्न-उत्तर याद करना और परीक्षा में याद किये हुए की उल्टी कर अच्छे अंक प्राप्त कर लेना मात्र है। इस तथ्य से भी कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य अंग्रेजी राज के लिए बाबू यानी क्लर्क तैयार करना था। आज तक हमारी व्यवस्था उसी मॉडल पर चलते हुए हमने शिक्षा में नवाचार और सृजनात्मकता के मूल तत्व क्षमता, जिज्ञासा और रचनात्मकता को विकसित करने हेतु कोई अवसर नजर नहीं आता है। तमाम आयोगो और नीतियों ने हमेशा विद्यार्थी के सृजनात्मक उत्कर्ष की सिफारिशें की हैं। लेकिन शिक्षा को धरातल पर उतारने वाला विभाग जो प्रशासनिक अधिकारियों की मनमर्जी से संचालित होता है में शिक्षा केवल आंकड़ों का मायाजाल बन कर रह जाती है।

जानिये हम कैसी पीढ़ी तैयार कर रहे : 

पहली नजर में ये आंकड़े ऐसा आभास करवाते है कि हमने दुनिया के सबसे बेहतरीन क्वालिटी वाले प्रतिभाशाली विद्यार्थी पैदा कर रहें हैं। प्रत्येक वर्ष कक्षा 10 और 12 की बोर्ड परीक्षाओं के नतीजों के आधार पर सफलता का बिढोरा पीटने वाले आंकड़ो से यह ज्ञात होता है कि पूरे में से पूरे अंक प्राप्त करने वाले और 95 प्रतिशत से अधिक अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वर्ष दर वर्ष वृद्धि हो रही है। लेकिन हमारे नीति नियंताओं और शासन में कार्यरत शिक्षाधिकारियों का प्रसिद्ध रूढिगत शब्द नवाचार जिसके मूल में तीन क यानी कैपेसिटी, क्यूरोसिटी और क्रियेटिविटी का विद्यार्थियों में कितना विकास हुआ इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। दरअस्ल प्रमाण तो प्रत्यक्ष का होता है। पाठ्यपुस्तकों और रटन्त को प्रोत्साहन देने वाली हमारी शिक्षा पद्धति में इन सबके लिए कोई स्थान ही नहीं है।



डा.प्रमोद चमोली के बारे में:

शिक्षण में नवाचार के कारण राजस्थान में अपनी खास पहचान रखने वाले डा.प्रमोद चमोली राजस्थान के माध्यमिक शिक्षा निदेशालय में सहायक निदेशक पद पर कार्यरत रहे हैं। राजस्थान शिक्षा विभाग की प्राथमिक कक्षाओं में सतत शिक्षा कार्यक्रम के लिये स्तर ‘ए’ के पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तकों के लेखक समूह के सदस्य रहे हैं। विज्ञान, पत्रिका एवं जनसंचार में डिप्लोमा कर चुके डा.चमोली ने हिन्दी साहित्य व शिक्षा में स्नातकोत्तर होने के साथ ही हिन्दी साहित्य में पीएचडी कर चुके हैं।
डॉ. चमोली का बड़ा साहित्यिक योगदान भी है। ‘सेल्फियाएं हुए हैं सब’ व्यंग्य संग्रह और ‘चेतु की चेतना’ बालकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके है। डायरी विधा पर “कुछ पढ़ते, कुछ लिखते” पुस्तक आ चुकी है। जवाहर कला केन्द्र की लघु नाट्य लेखन प्रतियोगिता में प्रथम रहे हैं। बीकानेर नगर विकास न्यास के मैथिलीशरण गुप्त साहित्य सम्मान कई पुरस्कार-सम्मान उन्हें मिले हैं। rudranewsexpress.in के आग्रह पर सप्ताह में एक दिन शिक्षा और शिक्षकों पर केंद्रित व्यावहारिक, अनुसंधानपरक और तथ्यात्मक आलेख लिखने की जिम्मेदारी उठाई है।


राधास्वामी सत्संग भवन के सामने, गली नं.-2, अम्बेडकर कॉलौनी, पुरानी शिवबाड़ी रोड, बीकानेर 334003